ओ -ओ बरखे ,
ओ -ओ बरखे,
गऊआं तेरिया त्याईया,
बछिया तेरिया त्याईया,
ग्वालू तेरे भूखे।
ओ – ओ बरखे …..
ये चंद पंक्तियाँ चरितार्थ करती है , सुसंस्कृत ,समृद्ध लोक संस्कृति को या यूँ कहें की हर मर्ज का इलाज बुजुर्गों के पास था जोकि उन्हें समृद्ध वैदिक और पहाड़ी संस्कृति से मिला था।
आज बात कर रहें हैं भोज- भाटी (ग्वालुओं द्वारा किसी विशेष स्थान पर भोजन पकाना और खाना ) की। शायद आज दिमाग में ये बात इसलिए आयी क्योँ कि आज कुदरत मेहरबान होने की जगह दिनों -दिन रुठ सी रही है और बारिश न होने के कारण न केवल पहाड़ों किन्तु मैदानी इलाकों में भी त्राहि -त्राहि मची हुई है। गौरतलब है कि रबी की फसल बुआई के लिए ये समय उपयुक्त है और इस दौरान खासकर पहाड़ों में पानी बरसना जरुरी है।
मुझे याद आता है वो बचपन ,जब गावँ के हम सभी छोटे – छोटे बच्चे इस खेल-प्रथा में भाग लेते थे और हम में से कुछ अलग -अलग पोशाक पहन कर और कई बच्चे अपना मुँह रंग कर हर घर से अनाज मांगते थे। और तेल , हल्दी- नमक मांगने पर यह ऊपर लिखे शब्द दोहराते थे , किन्तु सही से अगर कहें तो ये शब्द भूल गये हैं और अब याद किसी भी एक व्यक्ति को नहीं आते। सभी के पास अतीत की धुंधली सी यादें है। एक स्थान जहां २ -३ छोटे -छोटे जलाशय थे वहां पर सारा सामान ला कर लकड़ियां इक्कठा कर के दो – तीन चूल्हे बना कर उन पर जैसे तैसे कच्चा – पक्का तैयार करते थे और कृष्ण भगवन , स्थानीय इष्ट और गौ माता को भोग लगा कर सभी बच्चे खाते थे और जंगली पतों (तैयाम्बल, टौंर ) के ऊपर ही उसे परोसा जाता था। हम सभी उस समय खुद को होटल के शेफ से कम नहीं समझते थे।
पर हम अक्सर देखते हैं कि भोज भाटी करने के २ या तीन दिन के अंदर बारिश हो ही जाया करती थी। शायद ये प्रथा उस समय से चली हो जब गोकुल में श्री कृष्ण अपने बाल सखाओं के साथ गौएँ चराने वन में जाया करते थे और बाल गोपाल और सखा अपने – अपने घरों से सामान ला कर वन में धमाल मचाते थे और सायं काल घर आ जाते थे। किन्तु आज पशु- धन भी नहीं है और गावँ में बच्चों की भी कमी। और यदि छुटियों में शहर से गावँ आना हो भी जाये तो को इस काम को करने से रोकने वाले मोड्रेन लोग भी हैं जो खाने को अनहाइजेनिक बताएँगे इसलिए ये प्रथा भी खत्म और हम जैसे लोगों का जोश भी ठंडा।
धन्यवाद

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